Wednesday 13 October 2010

श्री सत्यनारारण कथा (Story of Satyanarayan Vrat)



गवान सत्यनारायण भगवान विष्णु के ही रूप हैं।कथा के अनुसार इन्द्र का दर्प भंग करने के लिए भगवान विष्णु जी ने नर और नारायण के रूप में बद्रीनाथ में तपस्या कि थी वही नारायण सत्य को धारण करते हैं अत: सत्य नारायण कहे जाते हैं। इनकी पूजा में केले के पत्ते व फल के अलावा पंचामृत, पंच गव्य, सुपारी, पान, तिल, ज, मोली, रोली, कुमकुम, दूर्वा की आवश्यक्ता होती जिनसे भगवान की पूजा होती है। भगवान सत्यनारायण की पूजा के लिए दूध, मधु, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है जो भगवान को काफी पसंद है। इन्हें प्रसाद के रूप में फल, मिष्टान के अलावा आटे को भून कर उसमें चीनी मिलाकर एक प्रसाद बनता वह भी भोग लगता है। आप जब सत्यनारण की कथा करवायें तो इन सामग्रियों की व्यवस्था कर लें।
भगवान की पूजा के विषय में स्कन्द पुराण के रेवाखंड में विस्तार पूर्वक बताया गया है। भगवान श्री सत्यनारयण की पूजन विधि से पूर्व आइये हम स्कन्द पुराण के रेखाखंड से भगवान श्री सत्यनारायण की अमृतमयी कथा का श्रवण करें।
श्री सत्यनारारण कथा (Story of Satyanarayan Vrat)
सत्यनारायण व्रत कथा का पूरा संदर्भ यह है कि पुराकालमें शौनकादिऋषि नैमिषारण्य स्थित महर्षि सूत के आश्रम पर पहुंचे। ऋषिगण महर्षि सूत से प्रश्न करते हैं कि लौकिक कष्टमुक्ति,सांसारिक सुख समृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य की सिद्धि के लिए सरल उपाय क्या है? महर्षि सूत शौनकादिऋषियों को बताते हैं कि ऐसा ही प्रश्न नारद जी ने भगवान विष्णु से किया था। भगवान विष्णु ने नारद जी को बताया कि लौकिक क्लेशमुक्ति,सांसारिक सुखसमृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य सिद्धि के लिए एक ही राजमार्ग है, वह है सत्यनारायण व्रत। सत्यनारायण का अर्थ है सत्याचरण,सत्याग्रह, सत्यनिष्ठा। संसार में सुखसमृद्धि की प्राप्ति सत्याचरणद्वारा ही संभव है। सत्य ही ईश्वर है। सत्याचरणका अर्थ है ईश्वराराधन,भगवत्पूजा।
सत्यनारायण व्रत कथा के पात्र दो कोटि में आते हैं, निष्ठावान सत्यव्रती एवं स्वार्थबद्धसत्यव्रती।शतानन्द,काष्ठ-विक्रेता भील एवं राजा उल्कामुखनिष्ठावान सत्यव्रतीथे। इन पात्रों ने सत्याचरणएवं सत्यनारायण भगवान की पूजार्चाकरके लौकिक एवं पारलौकिक सुखोंकी प्राप्ति की। शतानन्दअति दीन ब्राह्मण थे। भिक्षावृत्ति अपनाकर वे अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। अपनी तीव्र सत्यनिष्ठा के कारण उन्होंने सत्याचरणका व्रत लिया। भगवान सत्यनारायण की विधिवत् पूजार्चाकी। वे इहलोकेसुखंभुक्त्वाचान्तंसत्यपुरंययौ(इस लोक में सुखभोग एवं अन्त में सत्यपुरमें प्रवेश) की स्थिति में आए। काष्ठ-विक्रेता भील भी अति निर्धन था। किसी तरह लकडी बेचकर अपना और अपने परिवार का पेट पालता था। उसने भी सम्पूर्ण निष्ठा के साथ सत्याचरणकिया; सत्यनारायण भगवान की पूजा- अर्चना की। राजा उल्कामुखभी निष्ठावान सत्यव्रतीथे। वे नियमित रूप से भद्रशीलानदी के किनारे सपत्नीक सत्यनारायण भगवान् की पूजार्चाकरते थे। सत्याचरणही उनके जीवन का मूलमन्त्र था। दूसरी तरफ साधु वणिक एवं राजा तुंगध्वजस्वार्थबद्धकोटि के सत्यव्रतीथे। स्वार्थ साधन हेतु बाध्य होकर इन दोनों पात्रों ने सत्याचरणकिया ; सत्यनारायण भगवान की पूजार्चाकी। साधु वणिक की सत्यनारायण भगवान में निष्ठा नहीं थी। सत्यनारायण पूजार्चाका संकल्प लेने के उपरान्त उसके परिवार में कलावतीनामक कन्या-रत्न का जन्म हुआ। कन्याजन्मके पश्चात उसने अपने संकल्प को भुला दिया और सत्यनारायण भगवान की पूजार्चानहीं की। उसने पूजा कन्या के विवाह तक के लिए टाल दी। कन्या के विवाह-अवसर पर भी उसने सत्याचरणएवं पूजा- अर्चना से मुंह मोड लिया और दामाद के साथ व्यापार-यात्रा पर चल पडा। दैवयोग से रत्नसारपुरमें श्वसुर-दामाद के ऊपर चोरी का आरोप लगा। यहां उन्हें राजा चंद्रकेतुके कारागार में रहना पडा। श्वसुर और दामाद कारागार से मुक्त हुए तो श्वसुर (साधु वाणिक) ने एक दण्डीस्वामी से झूठ बोल दिया कि उसकी नौका में रत्नादिनहीं, मात्र लता-पत्र है। इस मिथ्यावादनके कारण उसे संपत्ति-विनाश का कष्ट भोगना पडा। अन्तत:बाध्य होकर उसने सत्यनारायण भगवान का व्रत किया। साधु वाणिक के मिथ्याचार के कारण उसके घर पर भी भयंकर चोरी हो गई। पत्नी-पुत्र दाने-दाने को मुहताज। इसी बीच उन्हें साधु वाणिकके सकुशल घर लौटने की सूचना मिली। उस समय कलावती अपनी माता लीलावती के साथ सत्यनारायण भगवान की पूजा- अर्चना रही थी। समाचार सुनते ही कलावती अपने पिता और पति से मिलने के लिए दौडी। इसी हडबडी में वह भगवान का प्रसाद ग्रहण करना भूल गई। प्रसाद न ग्रहण करने के कारण साधु वाणिकऔर उसके दामाद नाव सहित समुद्र में डूब गए। फिर अचानक कलावतीको अपनी भूल की याद आई। वह दौडी-दौडी घर आई और भगवान का प्रसाद लिया। इसके बाद सब कुछ ठीक हो गया। लगभग यही स्थिति राजा तुंगध्वज की भी थी। एक स्थान पर गोपबन्धुभगवान सत्यनारायण की पूजा कर रहे थे। राजसत्तामदांधतुंगध्वजन तो पूजास्थल पर गए और न ही गोपबंधुओंद्वारा प्रदत्त भगवान का प्रसाद ग्रहण किया। इसीलिए उन्हें कष्ट भोगना पडा। अंतत: बाध्य होकर उन्होंने सत्यनारायण भगवान की पूजा- अर्चना की और सत्याचरणका व्रत लिया। सत्यनारायण व्रतकथा के उपर्युक्त पांचों पात्र मात्र कथापात्र ही नहीं, वे मानव मन की दो प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं। ये प्रवृत्तियां हैं, सत्याग्रह एवं मिथ्याग्रह।लोक में सर्वदाइन दोनों प्रवृत्तियों के धारक रहते हैं। इन पात्रों के माध्यम से स्कंदपुराण यह संदेश देना चाहता है कि निर्धन एवं सत्ताहीन व्यक्ति भी सत्याग्रही, सत्यव्रती,सत्यनिष्ठ हो सकता है और धन तथा सत्तासंपन्न व्यक्ति मिथ्याग्रहीहो सकता है। शतानन्दऔर काष्ठ-विक्रेता भील निर्धन और सत्ताहीनथे। फिर भी इनमें तीव्र सत्याग्रहवृत्तिथी। इसके विपरीत साधु वाणिकएवं राजा तुंगध्वजधनसम्पन्न एवं सत्तासम्पन्नथे। पर उनकी वृत्ति मिथ्याग्रहीथी। सत्ता एवं धनसम्पन्न व्यक्ति में सत्याग्रह हो, ऐसी घटना विरल होती है। सत्यनारायण व्रतकथाके पात्र राजा उल्कामुख ऐसी ही विरल कोटि के व्यक्ति थे। पूरी सत्यनारायण व्रतकथाका निहितार्थ यह है कि लौकिक एवं परलौकिकहितों की साधना के लिए मनुष्य को सत्याचरणका व्रत लेना चाहिए। सत्य ही भगवान है। सत्य ही विष्णु है। लोक में सारी बुराइयों, सारे क्लेशों, सारे संघर्षो का मूल कारण है सत्याचरणका अभाव। सत्यनारायण व्रत कथा पुस्तिका में इस संबंध में श्लोक इस प्रकार है :
यत्कृत्वासर्वदु:खेभ्योमुक्तोभवतिमानव:। विशेषत:कलियुगेसत्यपूजाफलप्रदा।केचित् कालंवदिष्यन्तिसत्यमीशंतमेवच।सत्यनारायणंकेचित् सत्यदेवंतथाऽपरे।नाना रूपधरोभूत्वासर्वेषामीप्सितप्रद:।भविष्यतिकलौविष्णु: सत्यरूपीसनातन:।
अर्थात् सत्यनारायण व्रत का अनुष्ठान करके मनुष्य सभी दु:खों से मुक्त हो जाता है। कलिकाल में सत्य की पूजा विशेष रूप से फलदायी होती है। सत्य के अनेक नाम हैं, यथा-सत्यनारायण, सत्यदेव। सनातन सत्यरूपी विष्णु भगवान् कलियुग में अनेक रूप धारण करके लोगों को मनोवांछित फल देंगे।
श्री सत्यनारायण पूजन विधि (Procedure of Satyanarayan Pooja):
जो व्यक्ति सत्यनारायण की पूजा का संकल्प लेते हैं उन्हें दिन भर व्रत रखना चाहिए। पूजन स्थल को गाय के गोबर से पवित्र करके वहां एक अल्पना बनाएं और उस पर पूजा की चकी रखें। इस चकी के चारों पाये के पास केले का वृक्ष लगाएं। इस चकी पर ठाकुर जी और श्री सत्यनारायण की प्रतिमा स्थापित करें। पूजा करते समय सबसे पहले गणपति जी  की पूजा करें फिर इन्द्रादि दशदिक्पाल की और क्रमश: पंच लोकपाल,माता सीता जी सहित मुकेश बिजल्वाण के स्वामी भगवान श्री रामजी, लक्ष्मण जी की, श्री राधा कृष्ण जी की। इनकी पूजा के पश्चात ठाकुर जी व श्री सत्यनारायण जी की पूजा करें। इसके बाद लक्ष्मी माता जी की और अंत में महादेव जी और ब्रह्मा जी की पूजा करें।
पूजा के बाद सभी देवों की आरती करें और चरणामृत लेकर प्रसाद वितरण करें।भू देव ब्राहमण देवता जी को दक्षिणा एवं वस्त्र दे व भोजन कराएं। भू देव ब्राहमण देवता जी के भोजन के पश्चात उनसे आशीर्वाद लेकर आप स्वयं भोजन करें।
जय श्री बद्रीनारायण.....! 

Wednesday 8 September 2010

आदिकवि वाल्मीकि द्वारा श्रीगणेश का स्तवन


आदिकवि वाल्मीकि द्वारा श्रीगणेश का स्तवन

आदिकवि वाल्मीकि द्वारा श्रीगणेश का स्तवन
 चतु:षष्टिकोटयाख्यविद्याप्रदं त्वां सुराचार्यविद्याप्रदानापदानम्।
कठाभीष्टविद्यार्पकं दन्तयुग्मं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
स्वनाथं प्रधानं महाविघन्नाथं निजेच्छाविसृष्टाण्डवृन्देशनाथम्।
प्रभुं दक्षिणास्यस्य विद्याप्रदं त्वां कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
विभो व्यासशिष्यादिविद्याविशिष्टप्रियानेकविद्याप्रदातारमाद्यम्।
महाशाक्तदीक्षागुरुं श्रेष्ठदं त्वां कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
विधात्रे त्रयीमुख्यवेदांश्च योगं महाविष्णवे चागमाञ्ा् शंकराय।
दिशन्तं च सूर्याय विद्यारहस्यं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
महाबुद्धिपुत्राय चैकं पुराणं दिशन्तं गजास्यस्य माहात्म्ययुक्तम्।
निजज्ञानशक्त्या समेतं पुराणं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
त्रयीशीर्षसारं रुचानेकमारं रमाबुद्धिदारं परं ब्रह्मपारम्।
सुरस्तोमकायं गणौघाधिनाथं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
चिदानन्दरूपं मुनिध्येयरूपं गुणातीतमीशं सुरेशं गणेशम्।
धरानन्दलोकादिवासप्रियं त्वां कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
अनेकप्रतारं सुरक्ताब्जहारं परं निर्गुणं विश्वसद्ब्रह्मरूपम्।
महावाक्यसंदोहतात्पर्यमूर्ति कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
इदं ये तु कव्यष्टकं भक्तियुक्तास्त्रिसंध्यं पठन्ते गजास्यं स्मरन्त:।
कवित्वं सुवाक्यार्थमत्यद्भुतं ते लभन्ते प्रसादाद् गणेशस्य मुक्तिम्॥ अर्थ :- गणेश्वर! आप चौंसठ कोटि विद्याओं के दाता तथा देवताओं के आचार्य बृहस्पति को भी विद्या-प्रदान का कार्य पूर्ण करनेवाले हैं। कठ को अभीष्ट विद्या देनेवाले भी आप ही हैं। (अथवा आप कठोपनिषद्रूपा अभीष्ट विद्या के दाता हैं।) आप द्विरद हैं, कवि हैं और कवियों की बुद्धि के स्वामी हैं; मैं आपको प्रणाम करता हूँ।
आप ही अपने स्वामी एवं प्रधान हैं। बडे-बडे विघनें के नाथ हैं। स्वेच्छा से रचित ब्रह्माण्ड-समूह के स्वामी और रक्षक भी आप ही हैं। आप दक्षिणास्य के प्रभु एवं विद्यादाता हैं। आप कवि हैं एवं कवियों के लिए बुद्धिनाथ हैं; मैं आपको प्रणाम करता हूँ। विभो! आप व्यास-शिष्य आदि विद्याविशिष्ट प्रियजनों को अनेक विद्या प्रदान करनेवाले और सबके आदि पुरुष हैं। महाशाक्त -मन्त्र की दीक्षा के गुरु एवं श्रेष्ठ वस्तु प्रदान करनेवाले आप कवि एवं कवियों के बुद्धिनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ। जो विधाता (ब्रह्माजी) को वेदत्रयी के नाम से प्रसिद्ध मुख्य वेदों का, महाविष्णु को योग का, शंकर को आगमों का और सूर्यदेव को विद्या के रहस्य का उपदेश देते हैं, उन कवियों के बुद्धिनाथ एवं कवि गणेशजी को मैं नमस्कार करता हूँ।
महाबुद्धि-देवी के पुत्र के प्रति गजानन के माहात्म्य से युक्त तथा निज ज्ञानशक्ति से सम्पन्न एक पुराण का उपदेश देनेवाले गणेश को, जो कवि एवं कवियों के बुद्धिनाथ हैं, मैं प्रणाम करता हूँ।
जो वेदान्त के सारतत्त्‍‌व, अपने तेज से अनेक असुरों का संहार करनेवाले, सिद्धि-लक्ष्मी एवं बुद्धि को दारा के रूप में अङ्गीकार करनेवाले और परात्पर ब्रह्मस्वरूप हैं; देवताओं का समुदाय जिनका शरीर है तथा जो गण-समुदाय के अधीश्वर हैं उन कवि एवं कवियों के बुद्धिनाथ गणेश को मैं नमस्कार करता हूँ।
जो ज्ञानानन्दस्वरूप, मुनियों के ध्येय तथा गुणातीत हैं; धरा एवं स्वानन्दलोक आदि का निवास जिन्हें प्रिय हैं; उन ईश्वर, सुरेश्वर, कवि तथा कवियों के बुद्धिनाथ गणेश को मैं प्रणाम करता हूँ।
जो अनेकानेक भक्तजनों को भव-सागर से पार करनेवाले हैं; लाल कमल के फूलों का हार धारण करते हैं; परम निर्गुण हैं; विश्वात्मक सद्ब्रह्म जिनका रूप है; तत्त्‍‌वमसि आदि महावाक्यों के समूह का तात्पर्य जिनका श्रीविग्रह है, उन कवि एवं कवियों के बुद्धिनाथ गणेश को मैं नमस्कार करता हूँ।
जो भक्ति -भाव से युक्त हो तीनों संध्याओं के समय गजानन का स्मरण करते हुए इस कव्यष्टक का पाठ करते हैं, वे गणेशजी के कृपा-प्रसाद से कवित्व, सुन्दर एवं अद्भुत वाक्यार्थ तथा मानव-जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।
जय श्री राम...........

Thursday 8 April 2010

चण्डी कवच/देवी कवच

देवी कवच/चण्डी कवच

देवी कवच
विनियोग – ॐ अस्य श्रीदेव्या: कवचस्य ब्रह्मा ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द:, ख्फ्रें चामुण्डाख्या महा-लक्ष्मी: देवता, ह्रीं ह्रसौं ह्स्क्लीं ह्रीं ह्रसौं अंग-न्यस्ता देव्य: शक्तय:, ऐं ह्स्रीं ह्रक्लीं श्रीं ह्वर्युं क्ष्म्रौं स्फ्रें बीजानि, श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये सर्व रक्षार्थे च पाठे विनियोग:।
ऋष्यादि-न्यास – ब्रह्मर्षये नम: शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नम: मुखे, ख्फ्रें चामुण्डाख्या महा-लक्ष्मी: देवतायै नम: हृदि, ह्रीं ह्रसौं ह्स्क्लीं ह्रीं ह्रसौं अंग-न्यस्ता देव्य: शक्तिभ्यो नम: नाभौ, ऐं ह्स्रीं ह्रक्लीं श्रीं ह्वर्युं क्ष्म्रौं स्फ्रें बीजेभ्यो नम: लिंगे, श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये सर्व रक्षार्थे च पाठे विनियोगाय नम: सर्वांगे।
ध्यान-
ॐ रक्ताम्बरा रक्तवर्णा, रक्त-सर्वांग-भूषणा।
रक्तायुधा रक्त-नेत्रा, रक्त-केशाऽति-भीषणा।।1
रक्त-तीक्ष्ण-नखा रक्त-रसना रक्त-दन्तिका।
पतिं नारीवानुरक्ता, देवी भक्तं भजेज्जनम्।।2
वसुधेव विशाला सा, सुमेरू-युगल-स्तनी।
दीर्घौ लम्बावति-स्थूलौ, तावतीव मनोहरौ।।3
कर्कशावति-कान्तौ तौ, सर्वानन्द-पयोनिधी।
भक्तान् सम्पाययेद् देवी, सर्वकामदुघौ स्तनौ।।4
खड्गं पात्रं च मुसलं, लांगलं च बिभर्ति सा।
आख्याता रक्त-चामुण्डा, देवी योगेश्वरीति च।।5
अनया व्याप्तमखिलं, जगत् स्थावर-जंगमम्।
इमां य: पूजयेद् भक्तो, स व्याप्नोति चराचरम्।।6
।।मार्कण्डेय उवाच।।
ॐॐॐ यद् गुह्यं परमं लोके, सर्व-रक्षा-करं नृणाम्।
यन्न कस्यचिदाख्यातं, तन्मे ब्रूहि पितामह।।1
।।ब्रह्मोवाच।।
ॐ अस्ति गुह्य-तमं विप्र सर्व-भूतोपकारकम्।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं, तच्छृणुष्व महामुने।।2
प्रथमं शैल-पुत्रीति, द्वितीयं ब्रह्म-चारिणी।
तृतीयं चण्ड-घण्टेति, कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।।3
पंचमं स्कन्द-मातेति, षष्ठं कात्यायनी तथा।
सप्तमं काल-रात्रीति, महागौरीति चाष्टमम्।।4
नवमं सिद्धि-दात्रीति, नवदुर्गा: प्रकीर्त्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि, ब्रह्मणैव महात्मना।।5
अग्निना दह्य-मानास्तु, शत्रु-मध्य-गता रणे।
विषमे दुर्गमे वाऽपि, भयार्ता: शरणं गता।।6
न तेषां जायते किंचिदशुभं रण-संकटे।
आपदं न च पश्यन्ति, शोक-दु:ख-भयं नहि।।7
यैस्तु भक्त्या स्मृता नित्यं, तेषां वृद्धि: प्रजायते।
प्रेत संस्था तु चामुण्डा, वाराही महिषासना।।8
ऐन्द्री गज-समारूढ़ा, वैष्णवी गरूड़ासना।
नारसिंही महा-वीर्या, शिव-दूती महाबला।।9
माहेश्वरी वृषारूढ़ा, कौमारी शिखि-वाहना।
ब्राह्मी हंस-समारूढ़ा, सर्वाभरण-भूषिता।।10
लक्ष्मी: पद्मासना देवी, पद्म-हस्ता हरिप्रिया।
श्वेत-रूप-धरा देवी, ईश्वरी वृष वाहना।।11
इत्येता मातर: सर्वा:, सर्व-योग-समन्विता।
नानाभरण-षोभाढया, नाना-रत्नोप-शोभिता:।।12
श्रेष्ठैष्च मौक्तिकै: सर्वा, दिव्य-हार-प्रलम्बिभि:।
इन्द्र-नीलैर्महा-नीलै, पद्म-रागै: सुशोभने:।।13
दृष्यन्ते रथमारूढा, देव्य: क्रोध-समाकुला:।
शंखं चक्रं गदां शक्तिं, हलं च मूषलायुधम्।।14
खेटकं तोमरं चैव, परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं च खड्गं च, शार्गांयुधमनुत्तमम्।।15
दैत्यानां देह नाशाय, भक्तानामभयाय च।
धारयन्त्यायुधानीत्थं, देवानां च हिताय वै।।16
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे ! महाघोर पराक्रमे !
महाबले ! महोत्साहे ! महाभय विनाशिनि।।17
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये ! शत्रूणां भयविर्द्धनि !
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री, आग्नेय्यामग्नि देवता।।18
दक्षिणे चैव वाराही, नैऋत्यां खड्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारूणी रक्षेद्, वायव्यां वायुदेवता।।19
उदीच्यां दिशि कौबेरी, ऐशान्यां शूल-धारिणी।
ऊर्ध्वं ब्राह्मी च मां रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा।।20
एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शव-वाहना।
जया मामग्रत: पातु, विजया पातु पृष्ठत:।।21
अजिता वाम पार्श्वे तु, दक्षिणे चापराजिता।
शिखां मे द्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता।।22
मालाधरी ललाटे च, भ्रुवोर्मध्ये यशस्विनी।
नेत्रायोश्चित्र-नेत्रा च, यमघण्टा तु पार्श्वके।।23
शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये, श्रोत्रयोर्द्वार-वासिनी।
कपोलौ कालिका रक्षेत्, कर्ण-मूले च शंकरी।।24
नासिकायां सुगन्धा च, उत्तरौष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृत-कला, जिह्वायां च सरस्वती।।25
दन्तान् रक्षतु कौमारी, कण्ठ-मध्ये तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्र-घण्टा च, महामाया च तालुके।।26
कामाख्यां चिबुकं रक्षेद्, वाचं मे सर्व-मंगला।
ग्रीवायां भद्रकाली च, पृष्ठ-वंशे धनुर्द्धरी।।27
नील-ग्रीवा बहि:-कण्ठे, नलिकां नल-कूबरी।
स्कन्धयो: खडि्गनी रक्षेद्, बाहू मे वज्र-धारिणी।।28
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदिम्बका चांगुलीषु च।
नखान् सुरेश्वरी रक्षेत्, कुक्षौ रक्षेन्नरेश्वरी।।29
स्तनौ रक्षेन्महादेवी, मन:-शोक-विनाशिनी।
हृदये ललिता देवी, उदरे शूल-धारिणी।।30
नाभौ च कामिनी रक्षेद्, गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।
मेढ्रं रक्षतु दुर्गन्धा, पायुं मे गुह्य-वासिनी।।31
कट्यां भगवती रक्षेदूरू मे घन-वासिनी।
जंगे महाबला रक्षेज्जानू माधव नायिका।।32
गुल्फयोर्नारसिंही च, पाद-पृष्ठे च कौशिकी।
पादांगुली: श्रीधरी च, तलं पाताल-वासिनी।।33
नखान् दंष्ट्रा कराली च, केशांश्वोर्ध्व-केशिनी।
रोम-कूपानि कौमारी, त्वचं योगेश्वरी तथा।।34
रक्तं मांसं वसां मज्जामस्थि मेदश्च पार्वती।
अन्त्राणि काल-रात्रि च, पितं च मुकुटेश्वरी।।35
पद्मावती पद्म-कोषे, कक्षे चूडा-मणिस्तथा।
ज्वाला-मुखी नख-ज्वालामभेद्या सर्व-सन्धिषु।।36
शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
अहंकारं मनो बुद्धिं, रक्षेन्मे धर्म-धारिणी।।37
प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।
वज्र-हस्ता तु मे रक्षेत्, प्राणान् कल्याण-शोभना।।38
रसे रूपे च गन्धे च, शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
सत्वं रजस्तमश्चैव, रक्षेन्नारायणी सदा।।39
आयू रक्षतु वाराही, धर्मं रक्षन्तु मातर:।
यश: कीर्तिं च लक्ष्मीं च, सदा रक्षतु वैष्णवी।।40
गोत्रमिन्द्राणी मे रक्षेत्, पशून् रक्षेच्च चण्डिका।
पुत्रान् रक्षेन्महा-लक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी।।41
धनं धनेश्वरी रक्षेत्, कौमारी कन्यकां तथा।
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमंकरी तथा।।42
राजद्वारे महा-लक्ष्मी, विजया सर्वत: स्थिता।
रक्षेन्मे सर्व-गात्राणि, दुर्गा दुर्गाप-हारिणी।।43
रक्षा-हीनं तु यत् स्थानं, वर्जितं कवचेन च।
सर्वं रक्षतु मे देवी, जयन्ती पाप-नाशिनी।।44
।।फल-श्रुति।।
सर्वरक्षाकरं पुण्यं, कवचं सर्वदा जपेत्।
इदं रहस्यं विप्रर्षे ! भक्त्या तव मयोदितम्।।45
देव्यास्तु कवचेनैवमरक्षित-तनु: सुधी:।
पदमेकं न गच्छेत् तु, यदीच्छेच्छुभमात्मन:।।46
कवचेनावृतो नित्यं, यत्र यत्रैव गच्छति।
तत्र तत्रार्थ-लाभ: स्याद्, विजय: सार्व-कालिक:।।47
यं यं चिन्तयते कामं, तं तं प्राप्नोति निश्चितम्।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्नोत्यविकल: पुमान्।।48
निर्भयो जायते मर्त्य:, संग्रामेष्वपराजित:।
त्रैलोक्ये च भवेत् पूज्य:, कवचेनावृत: पुमान्।।49
इदं तु देव्या: कवचं, देवानामपि दुर्लभम्।
य: पठेत् प्रयतो नित्यं, त्रि-सन्ध्यं श्रद्धयान्वित:।।50
देवी वश्या भवेत् तस्य, त्रैलोक्ये चापराजित:।
जीवेद् वर्ष-शतं साग्रमप-मृत्यु-विवर्जित:।।51
नश्यन्ति व्याधय: सर्वे, लूता-विस्फोटकादय:।
स्थावरं जंगमं वापि, कृत्रिमं वापि यद् विषम्।।52
अभिचाराणि सर्वाणि, मन्त्र-यन्त्राणि भू-तले।
भूचरा: खेचराश्चैव, कुलजाश्चोपदेशजा:।।53
सहजा: कुलिका नागा, डाकिनी शाकिनी तथा।
अन्तरीक्ष-चरा घोरा, डाकिन्यश्च महा-रवा:।।54
ग्रह-भूत-पिशाचाश्च, यक्ष-गन्धर्व-राक्षसा:।
ब्रह्म-राक्षस-वेताला:, कूष्माण्डा भैरवादय:।।55
नष्यन्ति दर्शनात् तस्य, कवचेनावृता हि य:।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजो-वृद्धि: परा भवेत्।।56
यशो-वृद्धिर्भवेद् पुंसां, कीर्ति-वृद्धिश्च जायते।
तस्माज्जपेत् सदा भक्तया, कवचं कामदं मुने।।57
जपेत् सप्तशतीं चण्डीं, कृत्वा तु कवचं पुर:।
निर्विघ्नेन भवेत् सिद्धिश्चण्डी-जप-समुद्भवा।।58
यावद् भू-मण्डलं धत्ते ! स-शैल-वन-काननम्।
तावत् तिष्ठति मेदिन्यां, जप-कर्तुर्हि सन्तति:।।59
देहान्ते परमं स्थानं, यत् सुरैरपि दुर्लभम्।
सम्प्राप्नोति मनुष्योऽसौ, महा-माया-प्रसादत:।।60
तत्र गच्छति भक्तोऽसौ, पुनरागमनं न हि।
लभते परमं स्थानं, शिवेन सह मोदते ॐॐॐ।।61
।।वाराह-पुराणे श्रीहरिहरब्रह्म विरचितं देव्या: कवचम्।।

Thursday 4 March 2010

शनिवज्रपंजरकवचम्

शनिवज्रपंजरकवचम्

|| शनिवज्रपंजरकवचम् ||
श्री गणेशाय नमः ||
नीलाम्बरो नीलवपुः किरीटी गृध्रस्थितस्त्रासकरो धनुष्मान् |
चतुर्भुजः सूर्यसुतः प्रसन्नः सदा मम स्याद् वरदः प्रशान्तः || १||
ब्रह्मा उवाच ||
शृणुध्वमृषयः सर्वे शनिपीडाहरं महत् |
कवचं शनिराजस्य सौरेरिदमनुत्तमम् || २||
कवचं देवतावासं वज्रपंजरसंज्ञकम् |
शनैश्चरप्रीतिकरं सर्वसौभाग्यदायकम् || ३||
ॐ श्रीशनैश्चरः पातु भालं मे सूर्यनन्दनः |
नेत्रे छायात्मजः पातु पातु कणौं यमानुजः || ४||
नासां वैवस्वतः पातु मुखं मे भास्करः सदा |
स्निग्धकण्ठश्च मे कण्ठं भुजौ पातु महाभुजः || ५||
स्कन्धौ पातु शनिश्चैव करौ पातु- शुभप्रदः |
वक्षः पातु यमभ्राता कुक्षिं पात्वसितस्तथा || ६||
नाभिं ग्रहपतिः पातु मन्दः पातु कटिं तथा |
ऊरू ममान्तकः पातु यमो जानुयुगं तथा || ७||
पदौ मन्दगतिः पातु सर्वांगं पातु पिप्पलः |
अंगोपांगानि सर्वाणि रक्षेन् मे सूर्यनन्दनः || ८||
इत्येतत् कवचं दिव्यं पठेत् सूर्यसुतस्य यः |
न तस्य जायते पीडा प्रीतो भवति सूर्यजः || ९||
व्यय- जन्म- द्वितीयस्थो मृत्युस्थानगतोऽपि वा |
कलत्रस्थो गतो वाऽपि सुप्रीतस्तु सदा शनिः || १०||
अष्टमस्थे सूर्यसुते व्यये जन्मद्वितीयगे |
कवचं पठते नित्यं न पीडा जायते क्वचित् || ११||
इत्येतत्कवचं दिव्यं सौरेर्यन्निर्मितं पुरा |
द्वादशाऽष्टमजन्मस्थदोषान्नाशयते सदा |
जन्मलग्नस्थितान् दोषान् सर्वान्नाशयते प्रभुः || १२||
|| इति श्री ब्रह्माण्डपुराणे ब्रह्म- नारदसंवादे शनिवज्रपंजरकवचम् सम्पूर्णम् ||