Wednesday 29 June 2011

ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जाएगी....???


ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जाएगी
अगर अभी चली भी गई तो जलती हुई मेरी लाश को देख कर चली आएगी
ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जायगी.....

तेरे दिखाए झूठे सपने गीले पत्तों की तरह धुलेंगे
जब मेरी आँखों से आंसुओं कि बारिश शुरू हो जाएगी
ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जायगी.....

रुकेगी जब बदन में सांसों कि हलचल मेरे
बस मुझे तू और सिर्फ तू नज़र आएगी
ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जायगी.....

दिल तो करता है ज़हर पी लूँ मगर "साहिल" को मौत क्या देगी
क्या मरने के बाद मेरी रूह तेरी रूह से मिल पायेगी
ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जायगी.....

मरने के बाद भी मेरी आत्मा दूर तक नहीं जायेगी
जानती है तू कि ये तेरी तस्वीर तक फिर से लोट आएगी
ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जायगी.....

मिले अगर हम कभी तो एक हो जायेंगे
फिर ये फ़ासले दूरियाँ न रह पाएंगे
ज़िन्दगी तू फिर मुझे छोड़ कर चली जाएगी.....

तेरे इस दीवाने आशिक को तेरी बहुत याद आएगी
शायद इसी वजह से तू कभी इस साहिल से नहीं मिल पायेगी
ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जायगी.....

जानता हूँ ए ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर उस दिन"......" चली जाएगी
मगर तुझे ये साहिल कि सच्ची मोहब्बत इक रोज जरुर ढून्ढ लाएगी
ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जायगी.....

इस जन्म में न सही ए मेरी ज़िन्दगी 
अगले जन्म में तो तू मेरी हर ख़ुशी बन कर आएगी 
ज़िन्दगी तू साहिल को छोड़ कर फिर नहीं जा पायेगी..............

जाना भी चाहेगी तो तू इस जन्म में किये वादों को
पूरा करने के लिए रुक जाएगी......
ज़िन्दगी तू अपनी ज़िन्दगी को छोड़ कर कैसे चली जाएगी ............

ज़िन्दगी तू अपनी ज़िन्दगी..... कैसे चली जयेगी......कैसे चली जयेगी....कैसे चली जयेगी.......???

जय श्री राधेकृष्ण 


Tuesday 28 June 2011

मगर किसको खबर की तू भी तन्हा थी और मैं भी तन्हा था........



ना तुझे छोड़ सकते हैं तेरे हो भी नही सकते
ये कैसी बेबसी है आज हम ए ज़िन्दगी रो भी नही सेकते.........

ये कैसा दर्द है पल पल हमें तडपाए रखता है
तुम्हारी याद आती है तो फिर सो भी नही सकते........ 

छुपा सकते हैं और ना दिखा सकते हैं दागों को
कुछ ऐसे दाग हैं दिल पर जिन्हें हम धो भी नही सकते........ 

कहा तो था छोड़ देगें तुम्हें, मगर फिर रुक गये ए ज़िन्दगी
तुम्हें पा तो नही सकते, मगर हम खो भी नही सकते........ 

हमारा एक होना भी नही मुमकिन रहा अब तो
कसमें और वादे ऐसे हैं जिन्हें हम तोड़ भी नहीं सकते.....

हम हैं तुम्हारे और तू है हमारी..
ये जानते हैं दोनों लेकिन एक दुसरे के हम हो भी नहीं सकते....

ए ज़िन्दगी ये जो तेरी मोहब्त का कच्चा धागा था
वो कच्चा धागा शायद कब का टूट गया........

जो मोहब्बत का मौसम आया था "साहिल" की ज़िन्दगी में
वो बेचारा मौसम न जाने कब का पीछे छूट गया....

रास्ता तू अभी चली भी नहीं थी संग मेरे.........
दो कदम चलने पर ही, तेरे नाजुक पैरों में छाला फूट गया....

जारी है मगर "अन्जान मोहब्बत" का सफ़र
एक दिन तू मुझसे यूँही दूर हो जाएगी...

अपने इस दीवाने को तू इस अजनबी सफ़र में
मौत तक रोने के लिए अकेला छोड़ जाएगी...........

फिर लोग कहेंगे की इनका रिश्ता कितना सचा था
मगर किसको खबर की तू भी तन्हा थी और मैं भी तन्हा था...
.....


न एक दुसरे को छोड़ सकते थे, न एक दुसरे के हो ही सकते थे
हमारी बेबसी ऐसी थी हम एक दुसरे को दुःख न हो इसलिए रो भी न सकते थे...........

तस्वीर सामने होती थी तुम्हारी ए ज़िन्दगी
इसी लिए हम सारी रात सो भी न सकते थे...........

देख लेगी तेरी ये तस्वीर रोते हमको.......
सच कहते हैं इसी लिए हम रो भी न सकते थे....

तुम्हे पा तो नहीं सकते मगर मेरी ए ज़िन्दगी 
इस दुनिया में तुम्हे किसी भी कीमत पर हम खो भी नहीं सकते.......



missing u 2 much......zindagi....jsr

Sunday 19 June 2011

भगवान बद्रीनाथ का इतिहास....


बद्रीनाथ का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। स्कंद पुराण के अनुसार जब भगवान शिव से बद्रीनाथ के उद्गम के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि यह शाश्वत है जिसकी को‌ई शुरू‌आत नहीं। इस क्षेत्र के स्वामी स्वयं नारायण हैं। जब ईश्वर चिरंतर है तो उसके नाम, छवि, जीवन तथा आवास सभी चिरंतर ही है। समयानुसार केवल पूजा का रूप एवं नाम ही बदलता है। स्कंद पुराण में भी वर्णन है कि सतयुग में इस स्थल को मुक्तिप्रद कहा गया, त्रेता युग में इसे भोग सिद्धिदा कहा गया, द्वापर युग में इसे विशाल नाम दिया गया तथा कलयुग में इसे बद्रिकाश्रम कहा गया। महाभारत महाकाव्य की रचना पास ही माणा गांव में व्यास एवं गणेश गुफा‌ओं में की गयी।




माना जाता है कि एक दिन भगवान विष्णु शेष शय्या पर लेटे हु‌ए थे तथा उनकी पत्नी भगवती लक्ष्मी उनके पैर दबा रही थी, उसी समय ज्ञानी मुनि नारद उधर से गुजरे तथा उस शुभ दृश्य को देखकर विष्णु को सांसारिक आराम के लि‌ए फटकारा। भयभीत होकर विष्णु ने लक्ष्मी को नाग कन्या‌ओं के पास भेज दिया तथा स्वयं एक घाटी में हिमालयी निर्जनता में गायब हो गये जहां जंगली बेरियां (बद्री) थी जिसे वे खाकर रहते। एक योग ध्यान मुद्रा में वे क‌ई वर्षों तक तप करते रहे। लक्ष्मी वापस आयी और उन्हें नहीं पाकर उनकी खोज में निकल पड़ी। अंत में वह बद्रीवन पहुंची तथा विष्णु से प्रार्थना की कि वे योगध्यानी मुद्रा का त्याग कर मूल ऋंगारिक स्वरूप में आ जाये। इसके लि‌ए विष्णु सहमत हो गये लेकिन इस शर्त्त पर कि बद्रीवन की घाटी तप की घाटी बनी रहे न कि सांसारिक आनंद का और यह कि योगध्यानी मुद्रा तथा ऋंगारिक स्वरूप दोनों में उनकी पूजा की जाय। प्रथम मुद्रा में लक्ष्मी उनकी बांयी तरफ बैठी थी एवं दूसरे स्वरूप में लक्ष्मी उनकी दायीं ओर बैठी थी फलस्वरूप उन दोनों की पूजा एक दैवी जोड़े के रूप में होती है तथा व्यक्तिगत प्रतिमा‌ओं की तरह भी जिनके बीच को‌ई वैवाहिक संबंध नहीं होता क्योंकि परंपरानुसार पत्नी, पति के बायीं ओर बैठती है। यही कारण है कि रावल या प्रधान पुजारी को केवल केरल का नंबूद्रि ब्राह्मण लेकिन एक ब्रह्मचारी भी होना चाहि‌ए। योगध्यानी की तीन शर्तों का कठोर पालन किया गया है। गर्मी में तीर्थयात्रियों द्वारा विष्णु के ऋंगारिक रूप की पूजा की जाती है तथा जाड़े में उनके योग ध्यानी मुद्रा की पूजा देवी-देवता‌ओं तथा संतों द्वारा की जाती है।


इसी किंवदन्ती का दूसरा विचार यह है कि भगवान विष्णु ने अपने घर Baikunth का त्याग कर दिया। सांसारिक भोगों की भर्त्सना की तथा नर और नारायण के रूप में तप करने बद्रीनाथ आ गये। उनके साथ नारद भी आये। उन्होंने आशा की कि मानव उनके उदाहरण से प्रेरणा ग्रहण करेगा। ऐसा ही हु‌आ, देवों, संतों, मुनियों तथा साधारण लोगों ने यहां पहुंचने का जोखिम मात्र भगवान विष्णु का दर्शन पाने के लि‌ए उठाया। इस प्रकार भगवान को द्वापर युग आने तक अपने सही रूप में देखा गया जब नर और नारायण के रूप में उनका अवतार कृष्ण और अर्जन के रूप में हु‌आ (महाभारत)।


कलयुग में भगवान विष्णु बद्रीवन से गायब हो गये क्योंकि उन्हें भान हु‌आ कि मानव बहुत भौतिकवादी हो गया है तथा उसका ह्दय कठोर हो गया है। देवगण एवं मुनि भगवान का दर्शन नहीं पाकर परेशान हु‌ए तथा ब्रह्मदेव के पास गये जो भगवान विष्णु के बारे में कुछ नहीं जानते थे कि वे कहां हैं। उसके बाद वे भगवान शिव के पास गये और फिर उनके साथ बैकुंठ गये। यहां उन्हें यह आकाशवाणी सुना‌ई पड़ी कि भगवान विष्णु की मूर्त्ति बद्रीनाथ के नारदकुंड में पायी जा सकती है तथा इसे स्थापित किया जाना चाहिये ताकि लोग इसकी पूजा कर सके। देववाणी के अनुसार 6,500 वर्ष पहले मंदिर का निर्माण स्वयं ब्रह्मदेव द्वारा किया गया तथा विष्णु की मूर्त्ति, ब्रह्मांड के सृजक विश्वकर्मा द्वारा बनायी गयी। जब विधर्मियों द्वारा मंदिर पर हमला हु‌आ तथा देवों को भान हु‌आ कि वे भगवान की प्रतिमा को अशुद्ध होने से नही बचा सकते तब उन्होंने फिर से इस प्रतिमा को नारदकुंड में डाल दिया। फिर भगवान शिव से पूछा गया कि भगवान विष्णु कहां गायब हो गये तो उन्होंने बताया कि वे स्वयं आदि शंकराचार्य के रूप में अवतरित होकर मंदिर की पुनर्स्थापना करेंगे इसलि‌ए यह शंकराचार्य जो केरल के एक गांव में पैदा हु‌ए और 12 वर्ष की उम्र में अपनी दिव्य दृष्टि से बद्रीनाथ की यात्रा की। उन्होंने भगवान विष्णु की मूर्त्ति को फिर से लाकर मंदिर में स्थापित कर दिया। कुछ लोगों का विश्वास है कि मूर्त्ति बुद्ध की है तथा हिंदू दर्शन के अनुसार बुद्ध, विष्णु का नवां अवतार है और इस तरह यह बद्रीनाथ का दूसरा रूप समझा जा सकता है।


अपने हिन्दुत्व पुनरूत्थान कार्यक्रम में जब आदि शंकराचार्य बद्रीनाथ धाम गये तो वहां उन्हें पास के नारदकुंड के जल के नीचे वह प्रतिमा मिली जिसे बौद्धों के वर्चस्व काल में छिपा दिया गया था। उन्होंने इसकी पुर्नस्थापना की। आदि शंकराचार्य ने महसूस किया कि केवल शुद्ध आर्य ब्राह्मणों ने उत्तरी भारत के मैदानों में अपना आवास बना लिया तथा इसमें से कुछ शुद्ध आर्य ब्राह्मण केरल चल गये, जहां अपने नश्ल की शुद्धता बनाये रखने के लि‌ए उन्होंने कठोर सामाजिक नियम बना लिये। शंकराचार्य के समय के दौरान आर्य यहां 2,700 वर्ष से रह रहे थे तथा वे यहां के स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिल गये एवं एक-दूसरे के साथ विवाह कर लिया। बौद्धों ने ब्राह्मण-धर्म तथा संस्कृत भाषा को लुप्तप्राय कर दिया पर थोड़े-से आर्य ब्राह्मण, नम्बूद्रिपाद ने, जो केरल के दक्षिण जा बसे थे, अपनी जाति की संपूर्ण, शुद्धता तथा धर्म को बचाये रखा। इस महान सुधारक ने अनुभव किया कि मात्र नम्बूद्रिपादों को ही भगवान बद्रीनाथ की सेवा करने का सम्मान मिलना चाहि‌ए। उनका आदेश आज भी माना जाता है, मुख्य पुजारी सदैव केरल का एक नम्बूद्रिपाद ब्राह्मण ही होता है, जहां यह समुदाय, निकट से जड़ित आज भी परिवार ऋंखला में सामाजिक व्यवहारों में तथा विवाह-नियमों में वही पुराने कठोर नियमों को बनाये हु‌ए हैं।
जय बद्रीनारायण........