Thursday 3 November 2011

माँ सरस्वती वन्दना


या कुन्देन्दु- तुषारहार- धवला या शुभ्र- वस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमन्डितकरा या श्वेतपद्मासना |
या ब्रह्माच्युत- शंकर- प्रभृतिभिर्देवैः सदा पूजिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ||
शुक्लांब्रह्मविचारसारपरमा- माद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम् |
हस्ते स्पाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ||

जय श्री राम............!!!

भोजन मंत्र


ॐ यन्तु नद्यो वर्शन्तु पर्जन्या, सुपिप्पला ओषधयो भवन्तु,
अन्नावातम मोदान्न्वातम ममिक्षवातम, एषाम राजभुयाषम.
पर्मेस्ठिवा एषा यदोदनाह.
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षण, मास्वसारामुतास्वासा,
सम्येचासव्रता भूत्वा, वाचं वदत भद्रया.
परमामै वैयाम्श्रियम गमयति.
ब्रहमार्पणं ब्रहमहविर्‌ब्रहमाग्नौ ब्रहमणा हुतम् ।
ब्रहमैव तेन गन्तव्यं ब्रहमकर्मसमाधिना ॥
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु ।
सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु ।
मा विद्‌विषावहै ॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:: ॥

जय श्री राम ..........!!!

Tuesday 16 August 2011

ज़िन्दगी जब हमारी मुलाकात होगी । यही सोचता हूँ की क्या बात होगी ॥


ज़िन्दगी जब हमारी मुलाकात होगी ।
यही सोचता हूँ की क्या बात होगी ॥
ये दिन ढल गया है व फैला अँधेरा ,
है यादों ने बनकर के तूफान घेरा ,
चमकने लगी बिजली आसमां में ,
है विश्वास अब सुख की बरसात होगी ॥
ज़िन्दगी जब हमारी मुलाकात होगी ।
यही सोचता हूँ की क्या बात होगी..........॥
मैं बनकर के दीवाना गलियों में घूमा ,
चमकती बिजली के संग में भी खिल करके झूमा ,
मिले तू मुझे मैं गले से लगाऊं,
यही प्रेम की पुण्य सौगात होगी
ज़िन्दगी जब हमारी मुलाकात होगी ।
यही सोचता हूँ की क्या बात होगी..........॥
विरह की व्यथा में हुआ बे-सहारा,
की रो-रो तडपता है यह दिल हमारा
"साहिल"सिर्फ़ यादों के अब क्या बचा है ,
बिना अब न उनके मधुर रात होगी ॥
ज़िन्दगी जब हमारी मुलाकात होगी ।
यही सोचता हूँ की क्या बात होगी..........॥
जुबां से न हमारी अब कोई बात होगी
तड़पते दिल के लिए ये अमृत की बरसात होगी
ज़िन्दगी जब हमारी मुलाकात होगी ........
खामोश रहकर भी हमारी बात होगी.......
ज़िन्दगी जब हमारी मुलाकात होगी
ये ज़िन्दगी भर के लिए प्यार की एक सोगात होगी
ज़िन्दगी जब हमारी मुलाकात होगी.....
बस दिलों की दिलों से ही बात होगी.........
ज़िन्दगी जब हमारी मुलाकात होगी ।
यही सोचता रहता हूँ की क्या बात होगी....॥
साहिल की कविताओं में सिर्फ मोहब्त की बात होगी
आंसुओं की अब ना आँखों से बरसात होगी

ज़िन्दगी जब हमारी मुलाकात होगी..........
 ज़िन्दगी जब हमारी मुलाकात होगी............!!!!!!!!!!
love u zindagi..........

........***जय श्री कृष्ण***.........!

Thursday 4 August 2011

रक्षाबन्धन


रक्षाबन्धन

हिन्दुओं के चार प्रमुख त्यौहारों में से रक्षाबन्धन का त्यौहार एक है,श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है,यह मुख्यत: भाई बहिन के स्नेह का त्यौहार है,इस दिन बहिन भाई के हाथ पर राखी बांधती है,और माथे पर तिलक लगाती है,भाई प्रतिज्ञा करता है,कि यथा शक्ति मै अपनी बहिन की रक्षा करूंगा। एक बार भगवान श्रीकृष्ण की कलाई में चोट लगने से रक्त बहने लगा,तो द्रोपदी ने अपनी साडी का पल्लू फ़ाड कर उनके हाथ में पट्टी बांध दी,इसी बन्धन से ऋणी होकर दु:शासन के द्वारा चीर हरण के समय उन्होने साडी का पल्लू बढा कर उनकी लाज बचाई थी,मध्यकालीन इतिहास में एक ऐसी घटना मिलती है,जिसमें चित्तौड की रानी कर्मावती ने दिल्ली के मुगल बादशाह हुमायूँ के पास राखी भेजकर अपना भाई बनाया था,हुमायूँ ने राखी की इज्जत रखी और उनकी रक्षा के लिये गुजरात के बादशाह से युद्ध किया था।

कथा

प्राचीनकाल में एक बार देवताओं और दानवों में बारह वर्ष तक घोर संग्राम चला,इस संग्राम में राक्षसों की जीत हुई और देवता हार गये,दैत्यराज ने तीनों लोकों के अपने वश में कर लिया,तथा अपने को भगवान घोषित कर दिया,दैत्यों के अत्याचारों से देवताओं के राजा इन्द्र ने देवताओं के गुरु बृहस्पति से विचार विमर्श किया,और रक्षा विधान करने को कहा,श्रावण पूर्णिमा को प्रात: काल रक्षा का विधान सम्पन्न किया गया-"येन बद्धोबली राजा दान्वेन्द्रो महाबल:,तेन त्वामिभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल",उक्त मंत्रोचार से श्रावण पूर्णिमा के दिन गुरु बृहस्पति ने रक्षा विधान किया,सह धर्मिणी इन्द्राणी के साथ वृत्र संहारक इन्द्र ने बृहस्पति की वाणी का अक्षरस: पालन किया,इन्द्राणी ने ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा स्वास्तिवाचन कराकर इन्द्र के दायें हाथ में रक्षा सूत्र बांध दिया,इसी सूत्र के बल पर इन्द्र ने दानवों पर विजय प्राप्त की।
जय श्री राम............!

नागपंचमी वर्त कथा....मुकेश बिजल्वाण


श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी नाग पंचमी के नाम से विख्यात है,इस दिन नागों का पूजन किया जाता है सि दिन व्रत करके सांपों को दूध पिलाया जाता है,गरुड पुराण में ऐसा सुझाव दिया गया है कि नागपंचमी के दिन घर के दरवाजे के दोनो बगल में नाग की मूर्ति बनाकर पूजन किया जाय,ज्योतिष के अनुसार पंचमी तिथि के मालिक नाग है,अर्थात शेषनाग आदि सर्पराजाओं का पूजन पंचमी को होना चाहिये।

कथा

प्राचीन दन्त कथाओं में अनेक कथायें प्रचलित है,उनमे से एक कथा इस प्रकार है- किसी राज्य में एक किसान रहता था,किसान के दो पुत्र व एक पुत्री थी,एक दिन हल चलाते समय सांप के तीन बच्चे कुचलकर मर गये,नागिन पहले तो विलाप करती रही फ़िर सन्तान के हत्यारे से बदला लेने के लिये चली,रात्रि में नागिन ने किसान उसकी पत्नी व दोनो पुत्रों को डस लिया,अगले दिन नागिन किसान की पुत्री को डसने के लिये पहुंची तो किसान की पुत्री ने नागिन के सामने दूध से भरा कटोरा रखा,और हाथ जोड कर क्षमा मांगने लगी,नागिन ने प्रसन्न होकर उसके माता पिता और दोनो भाइयों को जीवित कर दिया,उस दिन श्रावण शुक्ला पंचमी थी, तभी से नागों के प्रकोप से बचने के लिये इस दिन नागों की पूजा की जाती है।
जय श्री राम............!

Saturday 9 July 2011

भगवान श्री कृष्ण जी की आठ पटरानियों के अतिरिक्त सोलह हजार रानियाँ भी थीं , क्या यह सत्य है और क्या श्री कृष्ण द्वारा ऐसा करना उचित था ?

ज हमारे एक मित्र ने  इस तरह का  प्रश्न किया...... तो हम तो इसका क्या उत्तर देते लेकिन हमें अपने गुरदेव से जो ज्ञान प्राप्त हुआ उसके अनुसार यहाँ लिख रहे हैं जो कुछ भी भूल हो उसके लिए आप सभी से मुकेश बिजल्वाण छमा चाहता है......श्रीमद भागवत महापुराण के दशम स्कन्ध, अध्याय ६९ , श्लोक ३३ से ४२ में वेद व्यास जी ने हजारों वर्ष पूर्व , इस प्रसंग का वर्णन पूरे विस्तार के साथ किया है ,इसके अनुसार :-
भगवान श्री कृष्ण ने विलासी राजा नरकासुर (भौमासुर) को मार कर जब उसके वैभवशाली महल में प्रवेश किया तो देखा कि भौमासुर ने देश के विभिन्न राज्यों से सोलह हजार राजकुमारियों को लाकर  बंदी बना रखा है  !
भौमासुर की मृत्यु के उपरांत इन राजकुमारियों को पुनः उनके अपने  परिवारों में लौट पाना असंभव लगा ! अस्तु , अन्तःपुर में पधारे ,नर श्रेष्ठ भगवान श्री कृष्ण को देखते ही उन्होंने उनसे अपने जीवन एवं मान सम्मान रक्षा के लिए प्रार्थना की !श्री कृष्ण की मनोहारी छवि के दर्शन से सबकी सब उनपर मोहित हो गयीं थीं यहाँ तक क़ी  उन्होंने उनकी अहेतुकी कृपा तथा अपना परम सौभाग्य मान कर ,मन ही मन उनको अपने प्रियतम पति के रूप में वरण भी कर लिया था !(श्लोक ३१,३२,३३) ! श्री कृष्ण ने भी उन कन्याओं की जीवन रक्षा के लिए  एवं समाज में उन्हें उचित सम्मान दिलाने के लिए स्वीकार कर लिया !
तदनन्तर भगवान श्री कृष्ण ने एक ही मुहूर्त में  विभिन्न महलों में , अलग अलग रूप धारण कर के ,एक ही साथ ,उन १६००० राजकुमारियों के साथ विधिवत विवाह (पाणिग्रहण) किया  ! सर्वशक्तिमान अविनाशी भगवान  के लिए इसमें आश्चर्य क़ी कौनसी बात है ?
जब   देवर्षि  नारद ने श्रीकृष्ण क़ी इन १६००० रानियों के विषय में जाना तो उन्हें वैसी ह़ी शंका हुई जैसी की मित्र आपको या अनेक लोगों को होती होगी! वे सोचने लगे कि यह कितने आश्चर्य की बात है क़ी श्रीकृष्ण एक ही शरीर से ,एक  ह़ी समय ,एक साथ इतनी कुमारियों से ब्याह रचा सके !अब द्वारका में १६१०८ रानियों के साथ उनका वैवाहिक जीवन कितना दुखद अथवा सुखद है यह जानने की उत्सुकता लिए नारदजी  भगवान कृष्ण की गृहस्थी का दर्शन करने स्वयं द्वारका पहुँच गये !
द्वारका में जो नारद जी ने देखा ,उससे उनकी आँखें खुली क़ी खुली रह गयीं !उन्होंने देखा कि भगवान श्री कृष्ण अपनी सभी रानियों के साथ गृहस्थों को पवित्र करने वाले श्रेष्ठ धर्मों  का आचरण कर रहे हैं !यद्यपि वह एक ह़ी थे पर नारदजी ने उन्हें उनकी प्रत्येक रानी के साथ अलग अलग देखा ! उन्होंने श्रीकृष्ण की योगमाया का परम ऐश्वर्य बार बार देखा और उनकी व्यापकता का अनुभव किया !यह सब देख सुन कर नारदजी के  विस्मय और कौतूहल की सीमा नहीं  रही !
रामावतार में मर्यादा का अत्याधिक पालन करने वाले भगवान ने जहाँ एक पत्नीव्रत धर्म का पालन किया था वहाँ कृष्णावतार में उन्होंने वैसा नहीं किया ! श्री कृष्ण जी ने १६१०८ देविओं से विधिपूर्वक विवाह किया !
कुछ विद्वानों का मत है कि ,गृहस्थाश्रम धर्म का वर्णन करने वालीं, वेद की १६००० ऋचाएं ,कृष्णावतार के समय , प्रभु सेवा की भावना से राजकुमारियां बनी और अंततः श्री कृष्ण की विवाहिता पत्नियाँ हुईं !
भगवान श्रीकृष्ण जी के सम्बन्ध में जब हमने कुछ महात्माओं से पूछा तो उन्होंने सुझाव दिया कि मुकेश बिजल्वाण जी श्रीकृष्ण जी की महिमा को पूर्णतया माँ सरस्वती या वेद भी नहीं जानते फिर नर मनुष्यों की तो बात ही क्या है प्रिय पाठकों इसलिए बेहतर होगा की आप या हम श्रीमद भगवत गीता के दसवें अध्याय को पढ़ें...........क्यूंकि श्री कृष्ण भगवान जी के बारे में सिर्फ श्री कृष्ण जी ही बता सकते हैं और वो भी तब जब उन्हें अर्जुन जैसा शिष्य मिले........जय राधेगोविन्दा मित्रों........जय श्री राम..........!.......जय गोविंदा..!!!!!!!
भगवान श्रीकृष्ण जी के भक्तों की जय हो.................jsr

Friday 8 July 2011

सन्तानगोपाल स्तोत्र


सन्तानगोपाल स्तोत्र

।। सन्तानगोपाल स्तोत्र ।।
।। सन्तानगोपाल मूल मन्त्र ।।
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
सन्तानगोपालस्तोत्रं
श्रीशं कमलपत्राक्षं देवकीनन्दनं हरिम् ।
सुतसंप्राप्तये कृष्णं नमामि मधुसूदनम् ।।१।।
नमाम्यहं वासुदेवं सुतसंप्राप्तये हरिम् ।
यशोदाङ्कगतं बालं गोपालं नन्दनन्दनम्।। २ ।।
अस्माकं पुत्रलाभाय गोविन्दं मुनिवन्दितम् ।
नमाम्यहं वासुदेवं देवकीनन्दनं सदा ।। ३ ।।
गोपालं डिम्भकं वन्दे कमलापतिमच्युतम् ।
पुत्रसंप्राप्तये कृष्णं नमामि यदुपुङ्गवम् ।। ४ ।।
पुत्रकामेष्टिफलदं कञ्जाक्षं कमलापतिम् ।
देवकीनन्दनं वन्दे सुतसम्प्राप्तये मम ।। ५ ।।
पद्मापते पद्मनेत्रे पद्मनाभ जनार्दन ।
देहि मे तनयं श्रीश वासुदेव जगत्पते ।। ६ ।।
यशोदाङ्कगतं बालं गोविन्दं मुनिवन्दितम् ।
अस्माकं पुत्र लाभाय नमामि श्रीशमच्युतम् ।। ७ ।।
श्रीपते देवदेवेश दीनार्तिर्हरणाच्युत ।
गोविन्द मे सुतं देहि नमामि त्वां जनार्दन ।। ८ ।।
भक्तकामद गोविन्द भक्तं रक्ष शुभप्रद ।
देहि मे तनयं कृष्ण रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ।। ९ ।।
रुक्मिणीनाथ सर्वेश देहि मे तनयं सदा ।
भक्तमन्दार पद्माक्ष त्वामहं शरणं गतः ।। १० ।।
देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। ११ ।।
वासुदेव जगद्वन्द्य श्रीपते पुरुषोत्तम ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। १२ ।।
कञ्जाक्ष कमलानाथ परकारुणिकोत्तम ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। १३ ।।
लक्ष्मीपते पद्मनाभ मुकुन्द मुनिवन्दित ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। १४ ।।
कार्यकारणरूपाय वासुदेवाय ते सदा ।
नमामि पुत्रलाभार्थ सुखदाय बुधाय ते ।। १५ ।।
राजीवनेत्र श्रीराम रावणारे हरे कवे ।
तुभ्यं नमामि देवेश तनयं देहि मे हरे ।। १६ ।।
अस्माकं पुत्रलाभाय भजामि त्वां जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण वासुदेव रमापते ।। १७ ।।
श्रीमानिनीमानचोर गोपीवस्त्रापहारक ।
देहि मे तनयं कृष्ण वासुदेव जगत्पते ।। १८ ।।
अस्माकं पुत्रसंप्राप्तिं कुरुष्व यदुनन्दन ।
रमापते वासुदेव मुकुन्द मुनिवन्दित ।। १९ ।।
वासुदेव सुतं देहि तनयं देहि माधव ।
पुत्रं मे देहि श्रीकृष्ण वत्सं देहि महाप्रभो ।।२० ।।
डिम्भकं देहि श्रीकृष्ण आत्मजं देहि राघव ।
भक्तमन्दार मे देहि तनयं नन्दनन्दन ।। २१ ।।
नन्दनं देहि मे कृष्ण वासुदेव जगत्पते ।
कमलनाथ गोविन्द मुकुन्द मुनिवन्दित ।। २२ ।।
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम ।
सुतं देहि श्रियं देहि श्रियं पुत्रं प्रदेहि मे ।। २३ ।।
यशोदास्तन्यपानज्ञं पिबन्तं यदुनन्दनं ।
वन्देऽहं पुत्रलाभार्थं कपिलाक्षं हरिं सदा ।। २४ ।।
नन्दनन्दन देवेश नन्दनं देहि मे प्रभो ।
रमापते वासुदेव श्रियं पुत्रं जगत्पते ।। २५ ।।
पुत्रं श्रियं श्रियं पुत्रं पुत्रं मे देहि माधव ।
अस्माकं दीनवाक्यस्य अवधारय श्रीपते ।। २६ ।।
गोपाल डिम्भ गोविन्द वासुदेव रमापते ।
अस्माकं डिम्भकं देहि श्रियं देहि जगत्पते ।। २७ ।।
मद्वाञ्छितफलं देहि देवकीनन्दनाच्युत ।
मम पुत्रार्थितं धन्यं कुरुष्व यदुनन्दन ।। २८ ।।
याचेऽहं त्वां श्रियं पुत्रं देहि मे पुत्रसंपदम्।
भक्तचिन्तामणे राम कल्पवृक्ष महाप्रभो ।। २९ ।।
आत्मजं नन्दनं पुत्रं कुमारं डिम्भकं सुतम् ।
अर्भकं तनयं देहि सदा मे रघुनन्दन ।। ३० ।।
वन्दे सन्तानगोपालं माधवं भक्तकामदम् ।
अस्माकं पुत्रसंप्राप्त्यै सदा गोविन्दमच्युतम् ।। ३१ ।।
ॐकारयुक्तं गोपालं श्रीयुक्तं यदुनन्दनम् ।
क्लींयुक्तं देवकीपुत्रं नमामि यदुनायकम् ।। ३२ ।।
वासुदेव मुकुन्देश गोविन्द माधवाच्युत ।
देहि मे तनयं कृष्ण रमानाथ महाप्रभो ।। ३३ ।।
राजीवनेत्र गोविन्द कपिलाक्ष हरे प्रभो ।
समस्तकाम्यवरद देहि मे तनयं सदा ।। ३४ ।।
अब्जपद्मनिभं पद्मवृन्दरूप जगत्पते ।
देहि मे वरसत्पुत्रं रमानायक माधव ।। ३५ ।।
नन्दपाल धरापाल गोविन्द यदुनन्दन ।
देहि मे तनयं कृष्ण रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ।। ३६ ।।
दासमन्दार गोविन्द मुकुन्द माधवाच्युत ।
गोपाल पुण्डरीकाक्ष देहि मे तनयं श्रियम् ।। ३७ ।।
यदुनायक पद्मेश नन्दगोपवधूसुत ।
देहि मे तनयं कृष्ण श्रीधर प्राणनायक ।। ३८ ।।
अस्माकं वाञ्छितं देहि देहि पुत्रं रमापते ।
भगवन् कृष्ण सर्वेश वासुदेव जगत्पते ।। ३९ ।।
रमाहृदयसंभारसत्यभामामनः प्रिय ।
देहि मे तनयं कृष्ण रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ।। ४० ।।
चन्द्रसूर्याक्ष गोविन्द पुण्डरीकाक्ष माधव ।
अस्माकं भाग्यसत्पुत्रं देहि देव जगत्पते ।। ४१ ।।
कारुण्यरूप पद्माक्ष पद्मनाभसमर्चित ।
देहि मे तनयं कृष्ण देवकीनन्दनन्दन ।। ४२ ।।
देवकीसुत श्रीनाथ वासुदेव जगत्पते ।
समस्तकामफलद देहि मे तनयं सदा ।। ४३ ।।
भक्तमन्दार गम्भीर शङ्कराच्युत माधव ।
देहि मे तनयं गोपबालवत्सल श्रीपते ।। ४४ ।।
श्रीपते वासुदेवेश देवकीप्रियनन्दन ।
भक्तमन्दार मे देहि तनयं जगतां प्रभो ।।४५ ।।
जगन्नाथ रमानाथ भूमिनाथ दयानिधे ।
वासुदेवेश सर्वेश देहि मे तनयं प्रभो ।। ४६ ।।
श्रीनाथ कमलपत्राक्ष वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। ४७ ।।
दासमन्दार गोविन्द भक्तचिन्तामणे प्रभो ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। ४८ ।।
गोविन्द पुण्डरीकाक्ष रमानाथ महाप्रभो ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। ४९ ।।
श्रीनाथ कमलपत्राक्ष गोविन्द मधुसूदन ।
मत्पुत्रफलसिद्ध्यर्थं भजामि त्वां जनार्दन ।। ५० ।।
स्तन्यं पिबन्तं जननीमुखांबुजं विलोक्य मन्दस्मितमुज्ज्वलाङ्गम् ।
स्पृशन्तमन्यस्तनमङ्गुलीभिर्वन्दे यशोदाङ्कगतं मुकुन्दम् ।। ५१ ।।
याचेऽहं पुत्रसन्तानं भवन्तं पद्मलोचन ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। ५२ ।।
अस्माकं पुत्रसम्पत्तेश्चिन्तयामि जगत्पते ।
शीघ्रं मे देहि दातव्यं भवता मुनिवन्दित ।। ५३ ।।
वासुदेव जगन्नाथ श्रीपते पुरुषोत्तम ।
कुरु मां पुत्रदत्तं च कृष्ण देवेन्द्रपूजित ।। ५४ ।।
कुरु मां पुत्रदत्तं च यशोदाप्रियनन्दनम् ।
मह्यं च पुत्रसन्तानं दातव्यंभवता हरे ।। ५५ ।।
वासुदेव जगन्नाथ गोविन्द देवकीसुत ।
देहि मे तनयं राम कौशल्याप्रियनन्दन ।। ५६ ।।
पद्मपत्राक्ष गोविन्द विष्णो वामन माधव ।
देहि मे तनयं सीताप्राणनायक राघव ।। ५७ ।।
कञ्जाक्ष कृष्ण देवेन्द्रमण्डित मुनिवन्दित ।
लक्ष्मणाग्रज श्रीराम देहि मे तनयं सदा ।। ५८ ।।
देहि मे तनयं राम दशरथप्रियनन्दन ।
सीतानायक कञ्जाक्ष मुचुकुन्दवरप्रद ।। ५९ ।।
विभीषणस्य या लङ्का प्रदत्ता भवता पुरा ।
अस्माकं तत्प्रकारेण तनयं देहि माधव ।। ६० ।।
भवदीयपदांभोजे चिन्तयामि निरन्तरम् ।
देहि मे तनयं सीताप्राणवल्लभ राघव ।। ६१ ।।
राम मत्काम्यवरद पुत्रोत्पत्तिफलप्रद ।
देहि मे तनयं श्रीश कमलासनवन्दित ।। ६२ ।।
राम राघव सीतेश लक्ष्मणानुज देहि मे ।
भाग्यवत्पुत्रसन्तानं दशरथप्रियनन्दन ।
देहि मे तनयं राम कृष्ण गोपाल माधव ।। ६४ ।।
कृष्ण माधव गोविन्द वामनाच्युत शङ्कर ।
देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ।। ६५ ।।
गोपबाल महाधन्य गोविन्दाच्युत माधव ।
देहि मे तनयं कृष्ण वासुदेव जगत्पते ।। ६६ ।।
दिशतु दिशतु पुत्रं देवकीनन्दनोऽयं
दिशतु दिशतु शीघ्रं भाग्यवत्पुत्रलाभम् ।
दिशतु दिशतु शीघ्रं श्रीशो राघवो रामचन्द्रो
दिशतु दिशतु पुत्रं वंश विस्तारहेतोः ।। ६७ ।।
दीयतां वासुदेवेन तनयोमत्प्रियः सुतः ।
कुमारो नन्दनः सीतानायकेन सदा मम ।। ६८ ।।
राम राघव गोविन्द देवकीसुत माधव ।
देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ।। ६९ ।।
वंशविस्तारकं पुत्रं देहि मे मधुसूदन ।
सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ।। ७० ।।
ममाभीष्टसुतं देहि कंसारे माधवाच्युत ।
सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ।।७१ ।।
चन्द्रार्ककल्पपर्यन्तं तनयं देहि माधव ।
सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ।।७२ ।।
विद्यावन्तं बुद्धिमन्तं श्रीमन्तं तनयं सदा ।
देहि मे तनयं कृष्ण देवकीनन्दन प्रभो ।। ७३ ।।
नमामि त्वां पद्मनेत्र सुतलाभाय कामदम् ।
मुकुन्दं पुण्डरीकाक्षं गोविन्दं मधुसूदनम् ।। ७४ ।।
भगवन् कृष्ण गोविन्द सर्वकामफलप्रद ।
देहि मे तनयं स्वामिंस्त्वामहं शरणं गतः ।। ७५ ।।
स्वामिंस्त्वं भगवन् राम कृष्न माधव कामद ।
देहि मे तनयं नित्यं त्वामहं शरणं गतः ।। ७६ ।।
तनयं देहिओ गोविन्द कञ्जाक्ष कमलापते ।
सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ।।७७ ।।
पद्मापते पद्मनेत्र प्रद्युम्न जनक प्रभो ।
सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ।। ७८ ।।
शङ्खचक्रगदाखड्गशार्ङ्गपाणे रमापते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। ७९ ।।
नारायण रमानाथ राजीवपत्रलोचन ।
सुतं मे देहि देवेश पद्मपद्मानुवन्दित ।। ८० ।।
राम राघव गोविन्द देवकीवरनन्दन ।
रुक्मिणीनाथ सर्वेश नारदादिसुरार्चित ।। ८१ ।।
देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ।। ८२ ।।
मुनिवन्दित गोविन्द रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। ८३ ।।
गोपिकार्जितपङ्केजमरन्दासक्तमानस ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। ८४ ।।
रमाहृदयपङ्केजलोल माधव कामद ।
ममाभीष्टसुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ।। ८५ ।।
वासुदेव रमानाथ दासानां मङ्गलप्रद ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। ८६ ।।
कल्याणप्रद गोविन्द मुरारे मुनिवन्दित ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। ८७ ।।
पुत्रप्रद मुकुन्देश रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। ८८ ।।
पुण्डरीकाक्ष गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। ८९ ।।
दयानिधे वासुदेव मुकुन्द मुनिवन्दित ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। ९० ।।
पुत्रसम्पत्प्रदातारं गोविन्दं देवपूजितम् ।
वन्दामहे सदा कृष्णं पुत्र लाभ प्रदायिनम् ।। ९१ ।।
कारुण्यनिधये गोपीवल्लभाय मुरारये ।
नमस्ते पुत्रलाभाय देहि मे तनयं विभो ।। ९२ ।।
नमस्तस्मै रमेशाय रुमिणीवल्लभाय ते ।
देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ।। ९३ ।।
नमस्ते वासुदेवाय नित्यश्रीकामुकाय च ।
पुत्रदाय च सर्पेन्द्रशायिने रङ्गशायिने ।। ९४ ।।
रङ्गशायिन् रमानाथ मङ्गलप्रद माधव ।
देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ।। ९५ ।।
दासस्य मे सुतं देहि दीनमन्दार राघव ।
सुतं देहि सुतं देहि पुत्रं देहि रमापते ।। ९६ ।।
यशोदातनयाभीष्टपुत्रदानरतः सदा ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।।९७ ।।
मदिष्टदेव गोविन्द वासुदेव जनार्दन ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।। ९८ ।।
नीतिमान् धनवान् पुत्रो विद्यावांश्च प्रजापते ।
भगवंस्त्वत्कृपायाश्च वासुदेवेन्द्रपूजित ।। ९९ ।।
यःपठेत् पुत्रशतकं सोऽपि सत्पुत्रवान् भवेत ।
श्रीवासुदेवकथितं स्तोत्ररत्नं सुखाय च ।। १०० ।।
जपकाले पठेन्नित्यं पुत्रलाभं धनं श्रियम् ।
ऐश्वर्यं राजसम्मानं सद्यो याति न संशयः ।। १०१ ।।

Thursday 7 July 2011

जो तस्वीर आपने दी हमें बहुत बड़े अहसान की तरह उसी तस्वीर को पूजता है ये साहिल तीसरे भगवान की तरह...........


जो तस्वीर आपने  दी हमें बहुत बड़े अहसान की तरह 
उसी तस्वीर को पूजता है ये साहिल तीसरे भगवान की तरह...........
तुम्हारे पत्थर दिल की छुअन महसूस है उसमें
उसे महसूस करूँगा सारी ज़िन्दगी आपके किये किसी अहसान की तरह........
उसी तस्वीर में मिलती है तुम्हारी एक झलक मुझको
उसी से बात करता हूँ किसी इंसान की तरह........
हर वक़्त डूबा रहता हूँ तुम्हारी यादों के समंदर में
तुम्हरी याद आती है किसी तूफ़ान की तरह...........
साहिल की किस्मत में है ए ज़िन्दगी तुम्हारी बस यही तस्वीर
भूल न जाना इस साहिल को किसी अन्जान की तरह.............
तुझे न मिल पाने के दुःख से ये मोम सा साहिल भी मूरत में ढल गया 
देख कर साहिल के आंसुओं को पत्थर का श्री कृष्ण भी पिघल गया............
पिघला न तेरा दिल ये साहिल का सारा दिल है जल गया
मत कहना ए ज़िन्दगी तुझे पाने के लिए ये मोम का साहिल शमशान में जल गया........
तस्वीर में आपका हुस्न देखा तो ए ज़िन्दगी
ऐसा लगा जैसे अमावस की रात में चंदा निकल गया.......
रोते हुए तेरे साथ बीते समय को भूलूं तो किस तरह
अमावस की रात ढल गई सूरज निकल गया..........
माना की आपकी तस्वीर से रोशन है ज़िन्दगी
लेकिन फिर मत कहना आपके न मिलने के कारण साहिल गुजर गया........


साहिल है मर गया................................


नोट......... सॉरी पहला भगवान पहले और दुसरे भगवान जी के बारे में आप जानते हैं और तीसरे............

Wednesday 29 June 2011

ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जाएगी....???


ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जाएगी
अगर अभी चली भी गई तो जलती हुई मेरी लाश को देख कर चली आएगी
ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जायगी.....

तेरे दिखाए झूठे सपने गीले पत्तों की तरह धुलेंगे
जब मेरी आँखों से आंसुओं कि बारिश शुरू हो जाएगी
ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जायगी.....

रुकेगी जब बदन में सांसों कि हलचल मेरे
बस मुझे तू और सिर्फ तू नज़र आएगी
ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जायगी.....

दिल तो करता है ज़हर पी लूँ मगर "साहिल" को मौत क्या देगी
क्या मरने के बाद मेरी रूह तेरी रूह से मिल पायेगी
ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जायगी.....

मरने के बाद भी मेरी आत्मा दूर तक नहीं जायेगी
जानती है तू कि ये तेरी तस्वीर तक फिर से लोट आएगी
ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जायगी.....

मिले अगर हम कभी तो एक हो जायेंगे
फिर ये फ़ासले दूरियाँ न रह पाएंगे
ज़िन्दगी तू फिर मुझे छोड़ कर चली जाएगी.....

तेरे इस दीवाने आशिक को तेरी बहुत याद आएगी
शायद इसी वजह से तू कभी इस साहिल से नहीं मिल पायेगी
ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जायगी.....

जानता हूँ ए ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर उस दिन"......" चली जाएगी
मगर तुझे ये साहिल कि सच्ची मोहब्बत इक रोज जरुर ढून्ढ लाएगी
ज़िन्दगी तू मुझे छोड़ कर कैसे चली जायगी.....

इस जन्म में न सही ए मेरी ज़िन्दगी 
अगले जन्म में तो तू मेरी हर ख़ुशी बन कर आएगी 
ज़िन्दगी तू साहिल को छोड़ कर फिर नहीं जा पायेगी..............

जाना भी चाहेगी तो तू इस जन्म में किये वादों को
पूरा करने के लिए रुक जाएगी......
ज़िन्दगी तू अपनी ज़िन्दगी को छोड़ कर कैसे चली जाएगी ............

ज़िन्दगी तू अपनी ज़िन्दगी..... कैसे चली जयेगी......कैसे चली जयेगी....कैसे चली जयेगी.......???

जय श्री राधेकृष्ण 


Tuesday 28 June 2011

मगर किसको खबर की तू भी तन्हा थी और मैं भी तन्हा था........



ना तुझे छोड़ सकते हैं तेरे हो भी नही सकते
ये कैसी बेबसी है आज हम ए ज़िन्दगी रो भी नही सेकते.........

ये कैसा दर्द है पल पल हमें तडपाए रखता है
तुम्हारी याद आती है तो फिर सो भी नही सकते........ 

छुपा सकते हैं और ना दिखा सकते हैं दागों को
कुछ ऐसे दाग हैं दिल पर जिन्हें हम धो भी नही सकते........ 

कहा तो था छोड़ देगें तुम्हें, मगर फिर रुक गये ए ज़िन्दगी
तुम्हें पा तो नही सकते, मगर हम खो भी नही सकते........ 

हमारा एक होना भी नही मुमकिन रहा अब तो
कसमें और वादे ऐसे हैं जिन्हें हम तोड़ भी नहीं सकते.....

हम हैं तुम्हारे और तू है हमारी..
ये जानते हैं दोनों लेकिन एक दुसरे के हम हो भी नहीं सकते....

ए ज़िन्दगी ये जो तेरी मोहब्त का कच्चा धागा था
वो कच्चा धागा शायद कब का टूट गया........

जो मोहब्बत का मौसम आया था "साहिल" की ज़िन्दगी में
वो बेचारा मौसम न जाने कब का पीछे छूट गया....

रास्ता तू अभी चली भी नहीं थी संग मेरे.........
दो कदम चलने पर ही, तेरे नाजुक पैरों में छाला फूट गया....

जारी है मगर "अन्जान मोहब्बत" का सफ़र
एक दिन तू मुझसे यूँही दूर हो जाएगी...

अपने इस दीवाने को तू इस अजनबी सफ़र में
मौत तक रोने के लिए अकेला छोड़ जाएगी...........

फिर लोग कहेंगे की इनका रिश्ता कितना सचा था
मगर किसको खबर की तू भी तन्हा थी और मैं भी तन्हा था...
.....


न एक दुसरे को छोड़ सकते थे, न एक दुसरे के हो ही सकते थे
हमारी बेबसी ऐसी थी हम एक दुसरे को दुःख न हो इसलिए रो भी न सकते थे...........

तस्वीर सामने होती थी तुम्हारी ए ज़िन्दगी
इसी लिए हम सारी रात सो भी न सकते थे...........

देख लेगी तेरी ये तस्वीर रोते हमको.......
सच कहते हैं इसी लिए हम रो भी न सकते थे....

तुम्हे पा तो नहीं सकते मगर मेरी ए ज़िन्दगी 
इस दुनिया में तुम्हे किसी भी कीमत पर हम खो भी नहीं सकते.......



missing u 2 much......zindagi....jsr

Sunday 19 June 2011

भगवान बद्रीनाथ का इतिहास....


बद्रीनाथ का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। स्कंद पुराण के अनुसार जब भगवान शिव से बद्रीनाथ के उद्गम के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि यह शाश्वत है जिसकी को‌ई शुरू‌आत नहीं। इस क्षेत्र के स्वामी स्वयं नारायण हैं। जब ईश्वर चिरंतर है तो उसके नाम, छवि, जीवन तथा आवास सभी चिरंतर ही है। समयानुसार केवल पूजा का रूप एवं नाम ही बदलता है। स्कंद पुराण में भी वर्णन है कि सतयुग में इस स्थल को मुक्तिप्रद कहा गया, त्रेता युग में इसे भोग सिद्धिदा कहा गया, द्वापर युग में इसे विशाल नाम दिया गया तथा कलयुग में इसे बद्रिकाश्रम कहा गया। महाभारत महाकाव्य की रचना पास ही माणा गांव में व्यास एवं गणेश गुफा‌ओं में की गयी।




माना जाता है कि एक दिन भगवान विष्णु शेष शय्या पर लेटे हु‌ए थे तथा उनकी पत्नी भगवती लक्ष्मी उनके पैर दबा रही थी, उसी समय ज्ञानी मुनि नारद उधर से गुजरे तथा उस शुभ दृश्य को देखकर विष्णु को सांसारिक आराम के लि‌ए फटकारा। भयभीत होकर विष्णु ने लक्ष्मी को नाग कन्या‌ओं के पास भेज दिया तथा स्वयं एक घाटी में हिमालयी निर्जनता में गायब हो गये जहां जंगली बेरियां (बद्री) थी जिसे वे खाकर रहते। एक योग ध्यान मुद्रा में वे क‌ई वर्षों तक तप करते रहे। लक्ष्मी वापस आयी और उन्हें नहीं पाकर उनकी खोज में निकल पड़ी। अंत में वह बद्रीवन पहुंची तथा विष्णु से प्रार्थना की कि वे योगध्यानी मुद्रा का त्याग कर मूल ऋंगारिक स्वरूप में आ जाये। इसके लि‌ए विष्णु सहमत हो गये लेकिन इस शर्त्त पर कि बद्रीवन की घाटी तप की घाटी बनी रहे न कि सांसारिक आनंद का और यह कि योगध्यानी मुद्रा तथा ऋंगारिक स्वरूप दोनों में उनकी पूजा की जाय। प्रथम मुद्रा में लक्ष्मी उनकी बांयी तरफ बैठी थी एवं दूसरे स्वरूप में लक्ष्मी उनकी दायीं ओर बैठी थी फलस्वरूप उन दोनों की पूजा एक दैवी जोड़े के रूप में होती है तथा व्यक्तिगत प्रतिमा‌ओं की तरह भी जिनके बीच को‌ई वैवाहिक संबंध नहीं होता क्योंकि परंपरानुसार पत्नी, पति के बायीं ओर बैठती है। यही कारण है कि रावल या प्रधान पुजारी को केवल केरल का नंबूद्रि ब्राह्मण लेकिन एक ब्रह्मचारी भी होना चाहि‌ए। योगध्यानी की तीन शर्तों का कठोर पालन किया गया है। गर्मी में तीर्थयात्रियों द्वारा विष्णु के ऋंगारिक रूप की पूजा की जाती है तथा जाड़े में उनके योग ध्यानी मुद्रा की पूजा देवी-देवता‌ओं तथा संतों द्वारा की जाती है।


इसी किंवदन्ती का दूसरा विचार यह है कि भगवान विष्णु ने अपने घर Baikunth का त्याग कर दिया। सांसारिक भोगों की भर्त्सना की तथा नर और नारायण के रूप में तप करने बद्रीनाथ आ गये। उनके साथ नारद भी आये। उन्होंने आशा की कि मानव उनके उदाहरण से प्रेरणा ग्रहण करेगा। ऐसा ही हु‌आ, देवों, संतों, मुनियों तथा साधारण लोगों ने यहां पहुंचने का जोखिम मात्र भगवान विष्णु का दर्शन पाने के लि‌ए उठाया। इस प्रकार भगवान को द्वापर युग आने तक अपने सही रूप में देखा गया जब नर और नारायण के रूप में उनका अवतार कृष्ण और अर्जन के रूप में हु‌आ (महाभारत)।


कलयुग में भगवान विष्णु बद्रीवन से गायब हो गये क्योंकि उन्हें भान हु‌आ कि मानव बहुत भौतिकवादी हो गया है तथा उसका ह्दय कठोर हो गया है। देवगण एवं मुनि भगवान का दर्शन नहीं पाकर परेशान हु‌ए तथा ब्रह्मदेव के पास गये जो भगवान विष्णु के बारे में कुछ नहीं जानते थे कि वे कहां हैं। उसके बाद वे भगवान शिव के पास गये और फिर उनके साथ बैकुंठ गये। यहां उन्हें यह आकाशवाणी सुना‌ई पड़ी कि भगवान विष्णु की मूर्त्ति बद्रीनाथ के नारदकुंड में पायी जा सकती है तथा इसे स्थापित किया जाना चाहिये ताकि लोग इसकी पूजा कर सके। देववाणी के अनुसार 6,500 वर्ष पहले मंदिर का निर्माण स्वयं ब्रह्मदेव द्वारा किया गया तथा विष्णु की मूर्त्ति, ब्रह्मांड के सृजक विश्वकर्मा द्वारा बनायी गयी। जब विधर्मियों द्वारा मंदिर पर हमला हु‌आ तथा देवों को भान हु‌आ कि वे भगवान की प्रतिमा को अशुद्ध होने से नही बचा सकते तब उन्होंने फिर से इस प्रतिमा को नारदकुंड में डाल दिया। फिर भगवान शिव से पूछा गया कि भगवान विष्णु कहां गायब हो गये तो उन्होंने बताया कि वे स्वयं आदि शंकराचार्य के रूप में अवतरित होकर मंदिर की पुनर्स्थापना करेंगे इसलि‌ए यह शंकराचार्य जो केरल के एक गांव में पैदा हु‌ए और 12 वर्ष की उम्र में अपनी दिव्य दृष्टि से बद्रीनाथ की यात्रा की। उन्होंने भगवान विष्णु की मूर्त्ति को फिर से लाकर मंदिर में स्थापित कर दिया। कुछ लोगों का विश्वास है कि मूर्त्ति बुद्ध की है तथा हिंदू दर्शन के अनुसार बुद्ध, विष्णु का नवां अवतार है और इस तरह यह बद्रीनाथ का दूसरा रूप समझा जा सकता है।


अपने हिन्दुत्व पुनरूत्थान कार्यक्रम में जब आदि शंकराचार्य बद्रीनाथ धाम गये तो वहां उन्हें पास के नारदकुंड के जल के नीचे वह प्रतिमा मिली जिसे बौद्धों के वर्चस्व काल में छिपा दिया गया था। उन्होंने इसकी पुर्नस्थापना की। आदि शंकराचार्य ने महसूस किया कि केवल शुद्ध आर्य ब्राह्मणों ने उत्तरी भारत के मैदानों में अपना आवास बना लिया तथा इसमें से कुछ शुद्ध आर्य ब्राह्मण केरल चल गये, जहां अपने नश्ल की शुद्धता बनाये रखने के लि‌ए उन्होंने कठोर सामाजिक नियम बना लिये। शंकराचार्य के समय के दौरान आर्य यहां 2,700 वर्ष से रह रहे थे तथा वे यहां के स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिल गये एवं एक-दूसरे के साथ विवाह कर लिया। बौद्धों ने ब्राह्मण-धर्म तथा संस्कृत भाषा को लुप्तप्राय कर दिया पर थोड़े-से आर्य ब्राह्मण, नम्बूद्रिपाद ने, जो केरल के दक्षिण जा बसे थे, अपनी जाति की संपूर्ण, शुद्धता तथा धर्म को बचाये रखा। इस महान सुधारक ने अनुभव किया कि मात्र नम्बूद्रिपादों को ही भगवान बद्रीनाथ की सेवा करने का सम्मान मिलना चाहि‌ए। उनका आदेश आज भी माना जाता है, मुख्य पुजारी सदैव केरल का एक नम्बूद्रिपाद ब्राह्मण ही होता है, जहां यह समुदाय, निकट से जड़ित आज भी परिवार ऋंखला में सामाजिक व्यवहारों में तथा विवाह-नियमों में वही पुराने कठोर नियमों को बनाये हु‌ए हैं।
जय बद्रीनारायण........